दशहरे से कुछ दिन पहले मेरे मित्र सिद्धार्थ स्वामी झाँसी से दिल्ली व आसपास का क्षेत्र घूमने के लिए आए थे। इस दौरान हमारे आंखों के सामने एक ऐसी कहानी उभरकर आई जिसकी कभी हम लोगों ने कल्पना भी नहीं की थी । पीबी माथुर की एक ऐसी कहानी जिसे सुनकर हर किसी की आंखें नम हो जायेंगी ! पीबी माथुर की एक ऐसी कहानी जिसे सुनकर हर कोई यही कहेगा कि इस जिंदगी से तो मौत भली ! एक ऐसी कहानी जो जीने को मजबूर तो करती है लेकिन ऐसा भी क्या जीना जो मौत से भी बदतर हो गया हो ! एक ऐसी कहानी जिसने सब कुछ छीन लिया हो, और फिर भी कुछ पाने की आस में संघर्ष की सारी हदें पार कर दी हो। एक ऐसी कहानी जो सवाल खड़े करती है भारत के उन तमाम एनजीओ पर जो अक्सर दावे करते हैं लोगों की मदद करने के ! यूँ तो सिद्धार्थ के साथ मैंने काफी बक्त बिताया लेकिन यह पहली दफा था जब पीबी माथुर की दुर्दसा देखने के बाद मैंने सिद्धार्थ की आंखों में आंसू देखे।
पीबी माथुर के संघर्ष की दास्तां
शाम के साढ़े आठ बजे होंगे। सिद्धार्थ स्वामी और मैं अपने एक और मित्र विवेक घोष के साथ दिल्ली के कनॉट पैलेश पहुँचे। बड़े बड़े शोरूम जहां चमक धमक वाली लाइट्स से जगमगा रहे थे और ग्राहकों का उनमें आना जाना चल रहा था, तो वहीं दूसरी तरफ यहां के फुटपाथों पर छोटे छोटे सामानों के साथ दुकान लगाए दुकानदार अपना सामान बांध यहां से जाने की तैयारी कर रहे थे। और कुछ ही देर बाद फुटपाथ पर बैठे सभी दुकानदार एक-एक कर वहां से अपने घर का रुख करने लगे , लेकिन इस दौरान कनाट पैलेस के गेट नंबर 8 यह फुटपाथ पर बैठा एक खिलौना बेचने वाला एक शख्स पीबी माथुर अब भी वहां मौजूद था उसके पास थोड़ी बहुत ही खिलौने बचे थे और उसे वह अपने बैग में रख रहा था । बैग में खिलौने रख लेने के बाद भी यह लोगों से कुछ मदद की गुहार कर रहा था । वहां से आने जाने वाले लोग उसे देख तो रहे थे, लेकिन उसकी कोई भी सुनने को तैयार नहीं था।
क्या मदद चाहिए थी पीबी माथुर को?
खैर हम लोग उसके पास पहुंचे। 87 वर्षीय इस शख्स का नाम था पीबी माथुर ,उन्होंने खुद बताया पी से पंजाब और बी से बॉम्बे यानी पी बी , पूरा नाम नहीं पता लेकिन यहां इन्हें सब पीबी माथुर के नाम से ही जानते हैं। इनके अब पैर काम नहीं करते । न तो यह चल सकते हैं ,और न ही खड़े हो सकते हैं । यह लोगों से मदद मांग रहे थे ,ताकि कोई इन्हें मेट्रो तक छोड़ दे। लेकिन कोई इनकी नहीं सुन रहा था । इन्हें देख कर हमारे मन में भी कई सवाल खड़े हो रहे थे ,कि यह इस उम्र में और इस स्थिति में यह यहां क्यों है? और इन्हें कहां जाना है ? यह कैसे पहुंचेंगे?, और यह कैसे आते हैं ?
खैर इन सवालों को हमने मन में ही दफनाते हुए पहले उनकी मदद करना उचित समझी। पीवी माथुर को अपने कंधों का सहारा देते हुए हम लोग उन्हें मेट्रो स्टेशन की तरफ ले गए। मेट्रो ग्राउंड में पहुंचकर वृद्ध और असहाय माथुर के लिए वेंटिलेटर का इंतजाम किया । ताकि वह मेट्रो में दाखिल हो सकें। किसी तरह उन्हें मेट्रो मैं पहुंचाया।
पीबी माथुर की स्थिति को देख कर हम लोगों के अंदर उनकी कहानी जानने की जिज्ञासा फूट-फूटकर उमड़ रही थी। इसी दौरान हमारी मुलाकात राजीव चौक मेट्रो स्टेशन में कार्यरत सुरक्षाकर्मी बलवंत से हुई जो हर रोज करीब 1 साल से पीवी माथुर को वेंटिलेटर से मेट्रो तक छोड़ा करते हैं । इस बारे में बलवंत ने जो कुछ भी बताया वह दिल को झकझोर देने वाला था।
बलवंत के मुताबिक पीबी माथुर साहब बीते कई सालों से कनाट पैलेस के गेट नंबर आठ के फुटपाथ पर खिलौना बेचने का काम करते हैं । पहले इनके पास काफी खिलौने हुआ करते थे, जो ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित कर सके , लेकिन इस हालात में उनके पास एक छोटा सा बैग ही बचा था । जिसमें अब 4 या 6 खिलौने होंगे । बलवंत ने बताया कि माथुर साहब की यह हालत बीते 1 साल से है । वह न तो चल पाते हैं और न ही बैठ पाते हैं । हर रोज आप लोगों की ही तरह कोई न कोई उन्हें यहां तक छोड़ता है ,और लोगों की मदद से ही वह यहां तक आ पाते हैं ।
माथुर साहब के संघर्ष की कहानी शायद हम शब्दों में बयां न कर पाए, लेकिन उनके इस संघर्ष की कहानी संघर्ष की सारी हदें पार करती है । वह कहते हैं कि इस जिंदगी से तो मौत भली लेकिन जब तक मौत नहीं आती ,तब तक यह तो करना ही पड़ेगा। यदि करेंगे नहीं ,तो खाएंगे कैसे ? कैसे पालेंगे अपनी बेटी को?
बेटी के लिए संघर्ष की सारी हदें पार
दरअसल पीबी माथुर के परिवार में और उनकी बेटी सिवाय और कोई भी नहीं है । इस बेटी की शादी पीबी माथुर ने बीते कई सालों पहले कर दी थी । लेकिन शादी के कुछ दिन बाद इनकी बेटी के पति का देहांत हो गया था । जिसके बाद इनकी बेटी इन्हीं के पास रहने आ गई थी। तब पीबी माथुर चलने-फिरने में सक्षम थे, और कनाट पैलेस आकर खिलौना बेचकर अपने खाने-पीने का इंतजाम आसानी से कर लिया करते थे। लेकिन अब इनकी जो हालत है इससे न तो वह चल फिर पाते हैं ,और न ही ठीक से बैठ पाते हैं।
अवैध बसूली का जरिया डोनेशन
किसी तरह लोगों की मदद से हर रोज यहां आ कर दो चार बचे खिलौने बेच लिया करते हैं । वहीं कई लोग इनकी बिना खिलौने लिए ही मदद कर देते हैं । जब पीबी माथुर से सिद्धार्थ स्वामी ने यह जानने की कोशिश की, कि अब आप के पास केवल यही खिलौने बचे हैं । अब आप कैसे पेट भरेंगे ,तो उनका जवाब था कि कल का तो काम चल ही जाएगा? लेकिन कल के बाद क्या होगा ? इसका जबाव आप लोग और पीबी माथुर भली भांति जानते हैं।
पीबी माथुर को देख कर हम लोगों को ऐसे लगा जैसे पूरे भारत में चलने वाली समाज सेवी संस्थाएं केवल एक नाम बन कर रह गई हों या फिर केवल डोनेशन के नाम पर अवैध वसूली का एक जरिया बनकर रह गई हों।
क्योंकि बीते 1 साल से पीबी माथुर जो जिंदगी जी रहे हैं , वह किसी मौत से कम नहीं है । ऐसे में लोगों की मदद में हमेशा तत्पर रहने का दावा करने वाली समाजसेवी संस्थाओं को अपना रजिस्ट्रेशन रद्द करवा लेना चाहिए। क्योंकि अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए कई चैनल,अखबार वाले इनकी टेशवीरें तो ले गए लेकिन ये मुद्दा उठाना मुनासिब नहीं समझा। इस बारे में सरकार के बारे में कुछ लिखना इसलिए उचित नहीं समझा कि बहरों के सामने चिल्लाना ही व्यर्थ है। यदि आप में से कोई इनकी मदद करेगा तो उसके लिए मेरी,सिद्धार्थ स्वामी और विवेक घोष आपके आभारी रहेंगे।
Write By : Shreya Singhal